आज पता नहीं क्यों गुलजार का ये नज्म सुना और खुद को समझाने का कोशिश क्या की जीवन में सब आसन नहीं होता.................
दिन कुछ ऐसे गुजारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
जैसे एहसान उतारता है कोई
आईना देख के तसल्ली हुई
हम को इस घर में जानता है कोई
हम को इस घर में जानता है कोई
पक गया है शजर पे फल शायद
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर से पत्थर उछालता है कोई
फिर नजर में लहू के छींटे हैं
तुम को शायद मुघालता है कोई
तुम को शायद मुघालता है कोई
देर से गूँजतें हैं सन्नाटे
जैसे हम को पुकारता है कोई ।
जैसे हम को पुकारता है कोई ।
1 comments:
धन्यवाद्
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